Court News: HC ने कहा- आवेदन नहीं देने पर भी पति की मौत का मुआवजा पाने की हकदार है पत्नी
Court News झारखंड हाई कोर्ट के जस्टिस दीपक रोशन की अदालत ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि मृत कर्मचारी की पत्नी मौत की तिथि से ही मुआवजे की हकदार है, भले ही उसने मुआवजे के लिए आवेदन नहीं दिया हो। अदालत ने यह आदेश देते हुए कहा कि बीसीसीएल मृत कर्मचारी की पहली पत्नी को कर्मचारी की मृत्यु की तिथि से 60 वर्ष की आयु होने तक मुआवजा प्रदान करे। अदालत ने सौतेले बेटे को भी नौकरी देने का निर्देश दिया, जो अब व्यस्क हो गया है। इसके साथ ही अदालत ने याचिका निष्पादित कर दी।
इस संबंध में सूरज कुमार महतो और भाभी देवी ने हाई कोर्ट ने याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया था कि बीसीसीएल कर्मी भरत महतो को पहली पत्नी से कोई संतान नहीं थी। पहली पत्नी की सहमति से भरत महतो ने दूसरी शादी की, जिससे उसे एक बेटी और दो बेटे हुए। कर्मचारी भरत महतो की सेवा के दौरान ही 27 जनवरी 2007 को मौत हो गई। उसकी मृत्यु के बाद दोनों पत्नियों ने राष्ट्रीय कोयला वेतन समझौते के तहत नौकरी के लिए आवेदन दिया। दूसरी पत्नी ने 5 जून 2007 को आवेदन किया।
पहली पत्नी ने भी रोजगार के लिए आवेदन किया। प्रबंधन ने दूसरी पत्नी को रोजगार देने से मना कर दिया, क्योंकि दूसरी पत्नी होने के नाते उसे इसका कोई कानूनी अधिकार नहीं था। पहली पत्नी को बीसीसीएल ने 4 जुलाई 2007 को सूचित किया कि उनकी उम्र 45 वर्ष से अधिक है, इसलिए वह नौकरी के लिए योग्य नहीं है। हालांकि बीसीसीएल ने स्वीकार किया कि पहली पत्नी अपनी उम्र के कारण आर्थिक मुआवजे की हकदार है। लेकिन पहली पत्नी ने मुआवजे के लिए आवेदन नहीं किया। पहली पत्नी ने 5 जून 2008 को बीसीसीएल से अनुरोध किया कि उसके सौतेले बेटे को नौकरी देने पर विचार करे।
मुआवजा और नौकरी के लिए दायर करनी पड़ी याचिका
पिता की मृत्यु के समय सौतेला बेटा 12 वर्ष का था, जबकि प्रावधान के अनुसार पुरुष आश्रित को 18 वर्ष की आयु होने पर रोजगार प्रदान किया जा सकता है, जबकि महिला आश्रित को मौद्रिक मुआवजा प्रदान किया जाना चाहिए। लेकिन बीसीसएल ने सौतेले बेटे को नौकरी नहीं दी। इसके बाद पहली पत्नी और सौतेले बेटे ने मुआवजा और नौकरी के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की।
प्रार्थियों की ओर से अदालत को बताया गया कि मृतक कर्मचारी के आश्रित नाबालिग बच्चे के रूप में सौतेला बेटा नौकरी का हकदार था। यदि पहली पत्नी के आर्थिक मुआवजे को स्वीकार किया गया था तो सौतेले बेटे के लिए रोजगार भी उन्हीं सिद्धांतों के तहत अनिवार्य होना चाहिए। यह दावा किया गया कि सौतेले बेटे का रोजगार एक कानूनी अधिकार है, यह केवल बीसीसीएल के विवेकाधीन निर्णय नहीं है।
नियोक्ता आश्रित को मुआवजा और नौकरी देने को बाध्य
बीसीसीएल की ओर से बताया गया कि पहली पत्नी को आर्थिक मुआवजा स्वीकार किया, जिससे समझौते के तहत उनका दायित्व पूरा हो गया। उन्होंने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता सौतेले बेटे के लिए अब रोजगार लाभ की मांग वह नहीं कर सकते। यह भी तर्क दिया गया कि सौतेले बेटे का नाम कर्मचारी के सेवा अंश में नहीं था। पहली पत्नी ने आर्थिक मुआवजा के लिए आवेदन नहीं दिया है।
अदालतन ने अपने आदेश में कहा कि पहली पत्नी को प्रदान किया गया मुआवजा सौतेले बेटे को रोजगार देने की संभावना को नकारता नहीं है। राष्ट्रीय कोयला वेतन समझौते के अनुसार, नियोक्ता वयस्क होने पर नाबालिग बच्चे को रोजगार प्रदान करने और उक्त अवधि के दौरान विधवा को आर्थिक लाभ प्रदान करने के लिए बाध्य है। नियोक्ता की ओर से यह तर्क देना अनुचित है कि अब आर्थिक मुआवजा प्रदान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसने इसके लिए आवेदन नहीं किया है और सौतेला बेटा रोजगार का हकदार नहीं है।