New Delhi: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के जाति प्रमाणपत्र की बार-बार पड़ताल करना उनके लिए हानिकारक होगा। शीर्ष अदालत ने कहा है कि उनके पक्ष में जारी होने वाले जाति प्रमाण पत्र को जांच समिति द्वारा एक बार में ही सत्यापित माना जाना चाहिए।
जस्टिस एल. नागेश्वर राव और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने अपने फैसले में कहा, जांच समितियों द्वारा जाति प्रमाण पत्रों के सत्यापन का उद्देश्य झूठे और फर्जी दावों से बचना है। जाति प्रमाण पत्र के सत्यापन के लिए बार-बार पड़ताल करना एससी-एसटी के लोगों के लिए हानिकारक है।
जाति प्रमाण पत्र की जांच को तभी दोबारा खोला जाना चाहिए, जब धोखाधड़ी की आशंका हो या जब उन्हें उचित जांच के बिना जारी किया गया हो। पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के पुराने निर्णयों का हवाला देते हुए कहा, जांच समिति एक प्रशासनिक शाखा है, जो तथ्यों का सत्यापन करी है और जातिगत स्थिति के दावों की जांच करती है।
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इसके आदेशों को संविधान के अनुच्छेद-226 (न्यायिक समीक्षा की शक्ति) के तहत चुनौती दी जा सकती है। पीठ ने साथ ही चेन्नई जिला सतर्कता समिति के साल 2008 के उस निर्णय के खिलाफ याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसमें समिति ने जे. चित्रा के 1982 में जारी जाति प्रमाणपत्र को रद कर दिया था।
प्रमाणपत्र में चित्रा को वल्लुवन समुदाय का बताया गया था, जो अनुसूचित जाति है। लेकिन जब चित्रा की नौकरी महालेखाकार कार्यालय में हुई तो डॉ अंबेडकर सर्विस एसोसिएशन ने चित्रा द्वारा प्रस्तुत किए गए सामुदाय प्रमाण पत्र पर संदेह जताते हुए एक शिकायत की।
जिला सतर्कता समिति द्वारा की गई जांच में यह विचार व्यक्त किया गया कि वह वल्लुवन समुदाय से है, जो एक अनुसूचित जाति है। एसोसिएशन ने फिर से एक शिकायत की और आरोप लगाया कि उसने झूठे जाति प्रमाण पत्र के आधार पर आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार के रूप में रोजगार हासिल किया।
राज्य स्तरीय जांच समिति ने मामला फिर से जिला सतर्कता समिति को दोबारा जांच के लिए भेज दिया। दोबारा जांच के बाद चित्रा को जारी सामुदायिक प्रमाण पत्र को समिति ने रद कर दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने दिशानिर्देशों को पढ़ने के बाद पाया कि एक बार जारी किए गए सामुदायिक प्रमाण पत्र की मान्यता को अंतिम माना जाता है। उसके बाद राज्य स्तरीय जांच समिति के पास मामले को फिर से खोलने और जिला स्तरीय सतर्कता समिति को नए सिरे से विचार करने के लिए कहने का अधिकार नहीं है।