New Delhi: Pegasus espionage सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने इस्राइली सॉफ्टवेयर कंपनी पेगासस से देश में आम नागरिकों, पत्रकारों, नेताओं की जासूसी के आरोपों की जांच के आदेश दिए हैं। सेवानिवृत्त जज जस्टिस आरवी रवींद्रन की निगरानी में तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन करते हुए शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार पर कड़ी टिप्पणी की।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमण, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि देश के हर नागरिक को निजता के उल्लंघन से सुरक्षा देना जरूरी है। सरकार को हर बार बस यह कह देने से खुली छूट नहीं मिल सकती कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है। ऐसे में कोर्ट मूकदर्शक नहीं रह सकता।
पीठ ने कहा कि कानून-शासित लोकतांत्रिक देश में नागरिकों की विवेकहीन जासूसी की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह सिर्फ संविधान के तहत कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के पालन और पर्याप्त वैधानिक सुरक्षा उपायों के बाद ही संभव है। ऐसा न करने से प्रेस की आजादी पर भी निगरानी का प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
पत्रकारिता के स्रोतों की हिफाजत प्रेस की आजादी की बुनियादी शर्तों में से एक है। सुप्रीम कोर्ट ने आठ सप्ताह के बाद मामलों की सुनवाई करने का निर्णय करते हुए कहा कि तकनीकी समिति निजता के अधिकार, इंटरसेप्शन की प्रक्रिया और भारतीय नागरिकों की निगरानी में विदेशी एजेंसियों की भागीदारी से जुड़े मुद्दों पर विचार करेगी।
शीर्ष अदालत ने वरिष्ठ पत्रकार एन राम सहित अन्य याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए विभिन्न प्रासंगिक बिंदुओं को स्पष्ट करने के लिए एक विस्तृत हलफनामा दायर करने के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को उठाने के लिए केंद्र सरकार की खिंचाई की। पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार को हर बार राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे की आड़ में राहत नहीं दी जा सकती है।
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मुद्दे में केंद्र द्वारा कोई विशेष खंडन नहीं किया गया है। इस प्रकार हमारे पास याचिकाकर्ता की दलीलों को प्रथम दृष्टया स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। सभ्य लोकतांत्रिक समाज के सदस्यों को सूचना क्रांति के इस दौर में निजता की उचित अपेक्षा होती है। ये निजता, मात्र पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता नहीं है। भारत के हर नागरिक को निजता के उल्लंघन से बचाना चाहिए।
पीठ ने कहा कि जस्टिस रवींद्रन की निगरानी में तीन सदस्यीय तकनीकी समिति जासूसी के आरोपों की सच्चाई की जांच करेगी और जल्द रिपोर्ट पेश करेगी। तकनीकी समिति में राष्ट्रीय फोरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी, गांधीनगर के डीन डॉ नवीन कुमार चौधरी, अमृता विश्वविद्यापीठम, केरल के प्रोफेसर डॉ. प्रभारन पी. और आईआईटी बॉम्बे के कंप्यूटर साइंस एवं इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अश्विन अनिल गुमस्ते को शामिल किया है।
जस्टिस (रि.) रवींद्रन की मदद पूर्व आईपीएस अधिकारी आलोक जोशी व अंतरराष्ट्रीय इलेक्ट्रो-टेक्निकल आयोग से जुड़े डॉ. संदीप ओबेरॉय करेंगे। निजता और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकारों के हनन का आरोप, जिसकी जांच जरूरी है। भारत सरकार ने अपने निर्णय के बारे में स्पष्ट रुख नहीं अपनाया।
आशंका है कि कुछ विदेशी प्राधिकरण, एजेंसियां या निजी शक्तियां देश के नागरिकों को सर्विलांस पर रख रही हों। बाहरी देशों के आरोपों व विदेशियों की संलिप्तता से उत्पन्न गंभीर स्थिति। यह आरोप कि नागरिक अधिकारों के हनन में केंद्र या राज्य सरकारें शामिल हो सकती हैं। तथ्यात्मक पक्षों को सामने लाने में रिट न्यायक्षेत्र का सीमित होना। मिसाल के लिए, ये न्यायिक तथ्य है, नागरिकों पर तकनीक के उपयोग का सवाल विवादित है। इसमें तथ्यों के और परीक्षण की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारिता के स्रोतों की सुरक्षा पर जोर दिया। कहा, पर्याप्त सुरक्षा के बिना खबर के स्रोत, प्रेस की सहायता नहीं करेंगे और इससे जनहित के मुद्दों पर जनता को सूचना नहीं मिल पाएगी। पीठ ने कहा कि इस मामले में, एक लोकतांत्रिक समाज में प्रेस की आजादी के लिए पत्रकारिता के स्रोतों के संरक्षण के महत्व और इस पर जासूसी तकनीकों के संभावित कुप्रभाव के मद्देनजर कोर्ट का काम बेहद अहम है।
इसमें नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के कुछ गंभीर आरोप लगाए गए हैं। लिहाजा यह अदालत सच्चाई का पता लगाने और आरोपों की तह तक जाने के लिए मजबूर है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि निगरानी और यह ज्ञान कि किसी पर जासूसी का खतरा है, किसी व्यक्ति के अपने हक का प्रयोग करने को प्रभावित कर सकता है। यह कुछ मायनों में सेल्फ-सेंसरशिप का कारण भी बन सकता है।
हम स्पष्ट करते हैं कि हमारा प्रयास सांविधानिक आकांक्षाओं और कानून के शासन को बनाए रखने का है, न कि खुद को सियासी बयानबाजी में झोंकना। यह कोर्ट सदैव ‘राजनीतिक घेरे’ में न आने के प्रति सचेत रही है। हालांकि, नागरिकों को मौलिक अधिकारों के हनन से बचाने से कभी नहीं हिचकिचाती।